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‘फणीश्वरनाथ रेणु’ कृत ‘मैला आँचल’ को गोदान के बाद
हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। इस
उपन्यास के द्वारा ‘रेणु’ जी ने पूरे भारत के ग्रामीण जीवन का
चित्रण करने की कोशिश की है। स्वयं रेणु जी के शब्दों में :-
इसमें फूल भी हैं शूल भी है, गुलाब भी है, कीचड़ भी है,
चन्दन भी सुन्दरता भी है, कुरूपता भी- मैं किसी से दामन
बचाकर निकल नहीं पाया। 
कथा की सारी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ साहित्य की
दहलीज पर आ खड़ा हुआ हूँ; पता नहीं अच्छा किया या बुरा।
जो भी हो, अपनी निष्ठा में कमी महसूस नहीं करता।
हिंदी के उपन्यासों की एक खास बात उनका रोचक परिचय
या भूमिका होती है, जैसा कि हमने गुनाहों का देवता में भी
देखा है। इस उपन्यास का कथानक पूर्णिया जिले के एक गाँव
मेरीगंज का है । 
कहानी का मुख्य पात्र डॉक्टर प्रशांत बनर्जी है जो कि पटना
के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज से पढ़ने के बाद अनेक
आकर्षक प्रस्ताव ठुकराकर मेरीगंज में मलेरिया और काला-
अजर पर शोध करने के लिए जाता है। डॉक्टर गाँववालों के
व्यव्हार से आश्चर्यचकित है। वह रूढ़ियों को नहीं मानता और

जो लोग गाँव द्वारा तिरस्कृत हैं, वह उनको सहारा देता है।
उसकी सच का साथ देने की और लोगों को सही राह बताने की
यही आदत बाद में उसके लिए मुश्किल कड़ी कर देती है।
कहानी की नायिका है कमली। किसी अज्ञात बीमारी से पीड़ित
है लेकिन डॉक्टर उसको धीरे-धीरे ठीक कर देता है या यूँ कहा
जाए कि डॉक्टर खुद ही उसकी बीमारी का इलाज है। कमली
का हृदय विशाल और कोमल है। वह अपने अभिभावकों को
किसी प्रकार का कष्ट देना नहीं चाहती। कमली के पिता
विश्वनाथ मलिक गाँव के तहसीलदार हैं और फिर बाद में
तहसीलदारी छोड़कर कांग्रेस के नेता हो जाते हैं। वह इस
कहानी में सही मायने में ज़मींदारी व्यवस्था के प्रतीक हैं,
लेकिन उनका दोहरा चरित्र उपन्यास में दिखाया गया है। घर
आने पर वह एक समझदार और हंसोड़ व्यक्ति हो जाते हैं और
बाहर निकलने पर जमीन की लिप्सा से ग्रस्त हो जाते हैं जिसके
लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाने से नहीं चूकते। कहानी के
अन्य पात्र किसी न किसी विचारधारा के प्रतीक हैं और उनको
कहानी में लाया ही गया है उस ‘वाद’ को दिखने के लिए। कोई
जातिवाद, कोई समाजवाद तो कोई स्वराज्य आंदोलन का
झंडाबरदार है। 
जैसा कि रेणु जी ने भूमिका में ही कहा है कि यह एक
आंचलिक उपन्यास है। आंचलिकता से तात्पर्य है कि किसी
उपन्यास में किसी क्षेत्र के शब्दों और परम्पराओं का बहुतायत
में पाया जाना। इस उपन्यास में मिथिला क्षेत्र में प्रयोग किये
जाने वाले अनेक शब्द मिल जायेंगे। उस से बढ़कर गाँवों की
अपनी एक परम्परा होती है – अंग्रेजी नामों का क्षेत्रीकरण करने
की। तो स्टेशन टीसन हो जाता है , एम.एल.ए. मेले हो जाता है
और सोशलिस्ट सुशलिंग हो जाता है। गांधी जी गनही ,

जवाहरलाल जमाहिरलाल, स्वराज सुराज , और राजेंद्र प्रसाद
रजिन्नर परसाद हो जाते हैं। उपन्यास में प्रयुक्त आंचलिक
शब्दावली सिर्फ मिथिला में प्रयुक्त होती हो ऐसा नहीं कहा जा
सकता। सैकड़ों किलोमीटर दूर एक अवधी भाषी को भी सैकड़ों
शब्द अपने लगेंगे क्योंकि वहाँ भी इन्हीं शब्दों को बहुतायत में
प्रयोग किया जाता है। लोगों के नामों में भी यह प्रयोग देखा जा
सकता है। राम खेलावन, काली चरन, शिवशक्कर सिंह, हरगौरी
सिंह, रमपियरिया, रामजुदास इत्यादि नामों ने इस उपन्यास
की ग्रामीण पृष्ठभूमि को और पुख्ता कर दिया है। यदि
आंचलिकता की परिभाषा को बड़ा किया जाए तो गाँव की
घटनाएं भी इस दायरे में आ जाएंगी। किसी शुभ अवसर पर
लोगों को भोज देने के समय बड़ी जातियों का छोटी जातियों के
साथ खाने से इंकार करना, फसल कटाई-बुवाई के समय
लोकगीत गाना, अखाडा होना, वाद-विवादों के निपटारे के
लिए पंचायत बुलाना आदि को भी आंचलिकता का एक रूप
कहा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर –
अभी चेभर-लेट गाड़ी पर लीडरी सीख रहे हैं आप! आप
क्या जानिएगा की सात-सात भूजा फाँककर, सौ-सौ माइल
पैदल चलकर गाँव-गाँव में कांग्रेस का झंडा किसने फहराया?
मोमेंट में आपने अपने स्कूल में पंचम जारज का फोटो तोड़
दिया, हेडमास्टर को आफिस में ताला लगाकर कैद कर दिया,
बस आज आप लीडर हो गए। यह भेद हम लोगों को मालूम
रहता तो हम लोग भी खली फोटो तोड़ते। … गाँव के ज़मींदार
से लेकर थाना के चौकीदार-दफादार जिनके बैरी! कहीं-कहीं
गाँववाले दाल बाँधकर हमें हड़काते थे, जैसे मुड़बलिया को
लोग सूप और खपरी बजकर हड़काते हैं । … आप नहीं
जानिएगा छोटन बाबू !

उपन्यास में एक गाँव में प्रचलित जातिवाद के एक वीभत्स
चेहरे को दिखाया गया है। कई सारी घटनाएं और परम्पराएँ
दिखाई गई हैं जिससे लगता है कि ये जातिवाद का भस्मासुर
कितनी गहराई में अपनी जड़ें जमा चुका है। जब डॉक्टर साहब
नए नए गाँव में आते हैं तो लोग उनकी जाति जानने को आतुर
रहते हैं। डॉक्टर को खुद अपनी जाति नहीं मालूम होती है
क्योंकि वह अज्ञात कुल-शील था और उसने कभी अपनी जाति
को महत्व नहीं दिया था। गाँव में सभी जातियों के रहने के
स्थान अलग अलग थे और उनका अपना एक नेता होता था।
जाति को लेकर राजनीति भी बहुत होती थी। जब कांग्रेस और
सोशलिस्ट पार्टियां गाँव में आयीं तो लोगों पर उनका प्रभाव
अलग अलग था। पीड़ित जातियों पर सोशलिस्ट पार्टी का एक
बार में ही प्रभाव पड़ गया क्योंकि उनका तरीका बहुत ही
क्रांतिकारी था और उन्होंने जो वादा किया था वह कांग्रेस के
बालदेव जी ने नहीं किया था।
रेणु जी ने इस उपन्यास का काल-खण्ड एकदम उपयुक्त
चुना है। कहानी देश आजाद होने के कुछ समय पहले शुरू होती
है। इस से अंग्रेजों का राज करने का तरीका देखने का मौका
मिलता है और साथ ही साथ कांग्रेसी गतिविधियों को दिखाया
जा सकता है। बाद में सोसलिस्ट पार्टी ने भी गाँव में अपने झंडे
गाड़ दिए थे। इन दोनों पार्टियों की विचारधारा और कार्य करने
के तरीकों में अन्तर को विभिन्न घटनाओं के द्वारा दर्शाया गया
है। बाद में जब देश आजाद हुआ तो लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया
भी दिखाई गई। लोगों ने यह भी पूछा कि आज़ादी के कारण
ज़मीनी बदलाव क्या हुए। बाद में जब भारत के लोग
एम.एल.ए., मिनिस्टर, आदि पदों पर बैठने लगे तो उनके भ्रष्ट
होने को भी दिखाया गया है। गांधी जी की मृत्यु पर पूरे गाँव में

शोकयात्रा भी निकाली गई। गाँव के लोगों को भले ही गांधी
जी के जीवन और विचार के बारे में कुछ न मालूम हो लेकिन
गांधी जी महापुरुष हैं, इतना मालूम है।
हिंदी साहित्य को पढ़ने के बाद यह भावना जरूर आती है
कि लेखक को सामाजिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारियों का एहसास
होता है। शायद यह बात भारत के अन्य क्षेत्रीय भाषा के
साहित्यकारों पर भी लागू होती हो। रामधारी सिंह ‘दिनकर’,
विद्या निवास मिश्र, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ जी
जैसे साहित्यकारों को पढ़ने के समय भी यही लगता है। इस
उपन्यास में भी रेणु जी ने कहानी के पात्रों के माध्यम से यह
दर्शाने की कोशिश की है कि मनुष्य को अपने आसपास घटित
होने वाली घटनाओं में अपनी जिम्मेदारी का परिचय देना
चाहिए। डॉक्टर प्रशांत ने अपनी कर्मभूमि एक पिछड़े गाँव को
चुना। उन्होंने वहीँ पर मलेरिया अनुसन्धान करने की ठानी।
जिम्मेदारियों का यह बोध ममता द्वारा डॉक्टर को लिखे गए
एक पत्र में दृष्टिगोचर होता है – 
डॉक्टर! रोज डिस्पेंसरी खोलकर शिवजी की मूर्ति पर
बेलपत्र चढाने के बाद, संक्रामक और भयानक रोगों के फैलने
की आशा में कुर्सी पर बैठे रहना, अथवा अपने बंगले पर सैकड़ों
रोगियों की भीड़ जमा करके रोग की परीक्षा करने के पहले
नोटों और रुपयों की परीक्षा करना, मेडिकल कॉलेज के
विद्यार्थियों पर पांडित्य की वर्षा करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री
समझना और अस्पताल में कराहते हुए गरीब रोगियों के रूदन
को जिंदगी का एक संगीत समझकर उपभोग करना ही डॉक्टर
का कर्त्तव्य नहीं!
इस उपन्यास की शैली सहज है और पूरे उपन्यास में प्रवाह
बना रहता है। रेणु  जी ने दो लोगों में संवाद की शैली का

प्रयोग कम करते हुए प्रश्नोत्तर विधा का प्रयोग कहीं अधिक
किया है। गांव में किसी का किसी बारे में सोचना या निरर्थक
वार्तालापों को उन्होंने ऐसे ही व्यक्त कर दिया है। एक बानगी
देखिये – “चलो! चलो! पुरैनियाँ चलो! मेनिस्टर साहब आ रहे
हैं! औरत-मर्द, बाल-बच्चा, झंडा-पत्तखा और इनकिलास-
जिन्दबाघ करते हुए पुरैनियाँ चलो ! … रेलगाड़ी का टिकस?
… कैसा बेकूफ है! मिनिस्टर साहब आ रहे हैं और गाडी में
टिकस लगेगा? बालदेव जी बोले हैं, मिनिस्टर साहब से कहना
होगा, कोटा में कपडा बहुत कम मिलता है। ” पूरे उपन्यास में
लोकगीतों का जमकर प्रयोग किया गया है जिनमे संयोग,
वियोग, प्रकृति प्रेम इत्यादि भाव व्यक्त किये गए हैं। वाद्य यंत्रों
की आवाज को रेणु जी ने जगह-जगह प्रयोग किया है और ये
आवाजें कई बार कथानक बदलने के लिए इस्तेमाल की गई हैं।

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