काली बर्फ (नाटक)
Original Title
काली बर्फ (नाटक)
Subject & College
Publish Date
2024-12-12
Published Year
2024
Publisher, Place
Total Pages
78
ISBN 13
978-93-5775-482-8
Country
India
Language
हिंदी
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काली बर्फ
आतंकवाद से उपजा विस्थापन और उसका दर्द, मीरा कांत का नाटक काली बर्फ तमस भारत–पाकिस्तान से उपजे दर्द को बयान करनेवाली सशक्त करनेवाले उपन्यास के...Read More
प्रा. देवेंद्र बहिरम
काली बर्फ
आतंकवाद से उपजा विस्थापन और उसका दर्द, मीरा कांत का नाटक काली बर्फ
तमस भारत–पाकिस्तान से उपजे दर्द को बयान करनेवाली सशक्त करनेवाले उपन्यास के बाद मीरा कांत की नाट्यरचना कालीबर्फ ने मुझे फिर से हिला दिया ।आज लगभग दो दशक बाद भी यह नाटक अपनी प्रासंगिकता की ज़मीन पर मज़बूती से खड़ा है। यह उन स्थितियों का नाटक है जिसमें कश्मीर बेबस आँखों के सामने दम तोड़ती जीवन-संस्कृति है, घायल अस्मिता है। इसमें अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द ढोते परिवार हैं तो घाटी में आतंकवाद के साये में डरी-सहमी-मजबूर ज़िन्दगी जीते लोग भी हैं। अपनी समग्रता में जो सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक जीवन और मनोजगत की तबाही है। मगर साथ ही मन में एक ऐसा खुशनुमा अतीत है, कश्मीरियत है जिससे उम्मीद और सम्भावनाओं के सपने बराबर बने रहते हैं। प्रत्येक कृति की अपनी एक रचनात्मक यात्रा होती है। सृजन की संवेदना या विचार के बीज का अपनी मिट्टी में पलकें खोलना ही इस यात्रा की शुरुआत है। काली बर्फ: एक गहन और विचारोत्तेजक नाटक “काली बर्फ” एक ऐसा नाटक है जो दर्शकों को कश्मीर के संघर्षग्रस्त इलाकों की कठोर वास्तविकता से रूबरू कराता है। यह नाटक मानवीय रिश्तों, पहचान के संकट और हिंसा के प्रभाव की पड़ताल करता है।
नाटक की कहानी एक ऐसे परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है जो कश्मीर में आतंकवाद से प्रभावित है। परिवार के सदस्य अपनी जान बचाने के लिए पलायन करने को मजबूर हैं, लेकिन वे अपनी जड़ों और अपनी पहचान को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
“काली बर्फ” की सबसे बड़ी ताकत इसकी भाषा और संवाद हैं। नाटक के संवाद बेहद प्रभावशाली और मार्मिक हैं। वे दर्शकों को किरदारों की भावनाओं और उनके दर्द को महसूस करने में मदद करते हैं।काली बर्फ” एक बेहद प्रभावशाली और विचारोत्तेजक नाटक है। यह नाटक दर्शकों को कश्मीर के संघर्षग्रस्त इलाकों की वास्तविकता से रूबरू कराता है और उन्हें मानवीय रिश्तों और पहचान के संकट के बारे में सोचने पर मजबूर करता है। यह नाटक हर उस व्यक्ति को देखना चाहिए जो एक सार्थक और प्रभावशाली नाट्य अनुभव की तलाश में है।आज लगभग दो दशक बाद भी यह नाटक अपनी प्रासंगिकता की ज़मीन पर मज़बूती से खड़ा है। यह उन स्थितियों का नाटक है जिसमें कश्मीर बेबस आँखों के सामने दम तोड़ती जीवन-संस्कृति है, घायल अस्मिता है। इसमें अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द ढोते परिवार हैं तो घाटी में आतंकवाद के साये में डरी-सहमी-मजबूर ज़िन्दगी जीते लोग भी हैं। अपनी समग्रता में जो सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक जीवन और मनोजगत की तबाही है। मगर साथ ही मन में एक ऐसा खुशनुमा अतीत है, कश्मीरियत है जिससे उम्मीद और सम्भावनाओं के सपने बराबर बने रहते हैं।नाटक के केन्द्र में आतंकवाद से उपजा विस्थापन और उसका दर्द है जो आज विश्व की एक विकराल समस्या है। दुनियाभर में करोड़ों लोग विस्थापित हैं और यह अमानवीय स्थिति लगातार अपने पाँव पसारती जा रही है। आज लगभग दो दशक बाद भी यह नाटक अपनी प्रासंगिकता की ज़मीन पर मज़बूती से खड़ा है। यह उन स्थितियों का नाटक है जिसमें कश्मीर बेबस आँखों के सामने दम तोड़ती जीवन-संस्कृति है, घायल अस्मिता है। इसमें अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द ढोते परिवार हैं तो घाटी में आतंकवाद के साये में डरी-सहमी-मजबूर ज़िन्दगी जीते लोग भी हैं। अपनी समग्रता में जो सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक जीवन और मनोजगत की तबाही है। मगर साथ ही मन में एक ऐसा खुशनुमा अतीत है, कश्मीरियत है जिससे उम्मीद और सम्भावनाओं के सपने बराबर बने रहते हैं -अनवर हुसैन अनवर का शेर याद आता है-
ज़िंदगी दश्त की सूरत ही सही सब्र तो कर
एक दिन वादी-ए-कश्मीर भी हो सकती है
