हजारों सालों से भारत में जातीय व्यवस्था चली आ रही है इस जाति व्यवस्था के कारण दलित सवर्ण द्वारा किए
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हजारों सालों से भारत में जातीय व्यवस्था चली आ रही है इस जाति व्यवस्था के कारण दलित सवर्ण द्वारा किए अन्याय -अत्याचार के शिकार होते आ रहे है। इस व्यवस्था ने दलितों को मानवीय जीवन जीने से वंचित रखा गया। उन्हें विद्या अर्जित करने के अधिकारों से वंचित रखा गया ।आधुनिक काल में भेदभाव पर आधारित जातिवर्ण व्यवस्था से मुक्ति समानता तथा आदर्श समाज की नींव रखने का काम डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर ने किया। उन्होंने दलितों के विकास के लिए संघर्ष किया और उनके अधिकारों के लिए संवैधानिक लड़ाई लड़ी।उन्होंने दलित समाज को शिक्षित संगठित होकर संघर्ष के लिए प्रेरित किया। आजादी के बाद संविधान में दलितों तथा स्त्रियों को संवैधानिक अधिकार दिलवाये। जातियता नष्ट करने के लिए कुछ कानून बनाये फिर भी आज इक्कीसवीं सदी में अनेक गांवों तथा शहरों में दलितों पर अन्याय -अत्याचार होते हुए नजर आते हैं। डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर की मुर्ति को तोड़ना, संविधान को जलाना, दलितों के घेरों को जलाना,भिमा कोरेगांव स्थान पर दंगा करना आदि घटनाएं यह साबित करती हैं कि आज भी सवर्णों की मानसिकता बदली हुई नहीं दिखाई देती है। इसको आधार बनाकर कहानीकार जयप्रकाश कर्दम ने यह कहानियाॅं लिखी है ।
जयप्रकाश कर्दम एक प्रसिद्ध दलित कहानीकार हैं। उनके ‘तलाश कहानी संग्रह में कुल बारह कहानियां है ।तलाश’ सॉंग, नो बार, मोहरे, बिट्टन मर गई, मूवमेंट ,लाठी, जरूरत, जहर,कामरेड का घर, गंवार ,और शीत लहर आदि ।उनकी यह सभी कहानियां व्यापक रूप में दलित जाति के विषय में लिखी हुई है। इन कहानियों में उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से दलितों के जीवन की बारीकियों को चित्रित करके दलित समाज की समस्याओं, उनके अधिकारों की कमी, सामाजिक अन्याय, और उनके व्यक्तित्व की पहचान को उजागर किया है। उनकी कहानियां गहराई से भारतीय समाज की बेअदबी ,जातीय भेदभाव, अपराध और संघर्ष और समाज में बदलाव को दर्शाती है। अतः इन कहानियों में दलित जीवन की व्यथा, पीड़ा, छटपटाहट ,संघर्ष, आक्रोश एवं प्रतिकार के स्वर दिखाई देता हैं ।
भारत ने सभी क्षेत्रों में प्रगति की है। शिक्षा क्षेत्र के कारण समाज सुशिक्षित बन गया किन्तु धर्म के क्षेत्र में नयी सोच न ला सका । इक्कीसवीं सदी में भी सवर्ण समाज में दलितों के प्रति घृणा तथा छुआछूत जातिगत भेदभाव की मानसिक सोच दिखाई दे रही है ।इस संदर्भ में जयप्रकाश कर्दम की ‘तलाश ‘नामक कहानी उत्कृष्ट कहानी है। इस कहानी में मिस्टर गुप्ता के माध्यम से सवर्ण समाज में व्याप्त दलित समाज के प्रति घृणा एवं जातिगत भेदभाव को अभिव्यक्त करती है। इस कहानी में दलित पात्र रामबीर सिंह मिस्टर गुप्ता के मकान में किराए पर रहते हैं । रामबीर सिंह एक दलित स्त्री रामबती को अपने यहां खाना बनाने के लिए रखता है। पर मैसेज गुप्ता और उसका पति गुप्ता मिस्टर गुप्ता इस पर ऐतराज करते हैं। मिस्टर गुप्ता रामबीर सिंह को कहता है कि इंसान तो सब है साहब और इंसान- इंसान में भेद होता है ।सब इंसान बराबर नहीं होते। हजारों सालों से समाज में यह भेद बना हुआ है, हमें समाज के अनुसार चलना पड़ता है साहब। समाज जिन बातों को मानता है। हमको भी वह बातें माननी पड़ती है ।यदि मोहल्ले के लोगों को यह बात मालूम हुई कि हमारे घर के अंदर चूहड़ी खाना बनाती है ,तो मुसीबत हो जाएगी। तुमको मकान छोड़ना पड़ेगा तब रामबीर सिंह ने निश्चय किया कि वह रामबती को खाना बनवाना बंद नहीं करेंगे। और उन्होंने मिस्टर गुप्ता को जवाब दे दिया कि “यदि यह बात है तो मैं आपका मकान खाली करने को तैयार हूं। लेकिन जातिगत भेदभाव के आधार पर मैं रामबती से खाना बनवाना बंद नहीं करूंगा। अतः यह कहानी भारत के दलितों के प्रति मनुवादी मानसिकता को स्पष्ट करती है। इससे पता चलता है कि जाती- पाॅति की जड़े समाज में कितनी गहरी हो गई है,कि जातिवादी स्वर्ण समाज अपनी सोच बदलने को तैयार नहीं है। संविधान ने दलितों को बराबरी का दर्जा दिया हुआ है। लेकिन सही अर्थों में अभी तक सामाजिक रूप से बराबरी का दर्जा उनको नहीं मिला। इस कहानी के नायक रामबीर सिंह को केवल किराए के मकान की तलाश नहीं है? उसे ऐसे घर की तलाश है। जहां अपनापन हो ऐसे घर की तलाश है जहां जातिभेद न हो ।इसी प्रकार ‘जरूरत ‘कहानी में भी आज के वर्तमान युग की शिक्षित सवर्ण जाति की छात्रा संगीता की दलितों के प्रति अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव तथा छुवाछूत की मानसिकता को उजागर कर दिया है। दलित पात्र फिलॉसोफर जो कि संगीता की संकुचित मानसिकता के बारे में कहता है कि “एक विज्ञान की छात्रा होने तथा यूनिवर्सिटी के खुले वातावरण में जीने के बावजूद भी अन्य लोगों की तरह संगीता का दिमाग बिना केवल जातिगत के जहर से मुक्त नहीं था बल्कि काफी हद तक ऊंची- नीच को मानती थी। रोज सुबह वह मंदिर जाती थी ।उसे उसी समय कोई भी व्यक्ति सामने आता दिखाई देने पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। किंतु यदि कभी मैं उसके सामने दिखाई पड़ता तो जैसे वह अशुभ हो जाती। उसके माथे पर बल पड़ जाता था और उपेक्षा से अजीब सा मुंह करके वह निकल जाती जैसे कि मेरी छाया भी उस पर न पड़ जाए। एक दिन उसने पानी से भरी बाल्टी केवल इसलिए नाली में बिखेर दी थी कि उसमें मेरे हाथ से पानी की एक छिंट पड़ गई थी। अतः यह कहानी शिक्षित वर्ग सवर्ण वर्ग की संकुचित मानसिकता को उजागर करती है।अगर ऐसे मनुवादी लोगों को प्रशासनिक व्यवस्था संभालने का काम मिल जाए तो क्या होगा? दलित समाज को यह न्याय दे पाएंगे।जयप्रकाश कर्दम की कहानिबयों के पात्र अन्याय के विरुद्ध उठ खड़े होते हैं। अन्याय का प्रतिकार करते हैं। जैसे ‘सॉंग’ कहानी की नायिका चंपा जो खेती और मजदूर है ।जब गांव का मुखिया दलित भुल्लन एवं उसकी पत्नी चंपा को खेत में काम करने न आने के कारण से बेरहमी से मारता है। तब मुखिया का हाथ चंपा तक पहुंचने से पहले ही कुल्हाड़ी निकाल कर चंपा उसके सिर पर मार देती है। इसी प्रकार ‘लाठी’ नामक कहानी का एक पात्र जो कि एक दलित किसान है जो अपने वार पर अपने खेत में पानी देने जाता है। लेकिन उसे समय दूसरे गांव के दबंग जाट दलित किसान को खेत में पानी भरने नहीं देते हैं । उसी को लेकर दोनों में कहां -सुनी हो जाती है। तब दबंग जाट दलित किसान को लाठी मार देता है। दलित किसान अपने मोहल्ले में आकर इस घटना की जानकारी देता है। तब सब जाट से बदला लेने के लिए उठ खड़े होते है।’जहर’ कहानी में भी एक दलित नायक तांगेवाला है। एक दिन वह एक ब्राह्मण को अपने तांगे में बिठा लेता है। रास्ते में किसी दलित नेता का रैली में जाती हुई दलितों की भीड़ को देखकर ब्राह्मण भड़क उठता है और दलितों के खिलाफ जहर उगलने लगता है। तब तांगेवाला विशम्बर ब्राह्मण को बीच रास्ते पर उतार देता है। वह पंडित से अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए कहता है कि” दो रूपए का नुकसान मुझे होगा न? मैं सौ रुपए का नुकसान भी बर्दाश्त कर लूंगा तेरे जैसे अपमानजनक बातें बर्दाश्त नहीं करूंगा ।चल उतर। अतःइन कहानियों से यह प्रमाणित हो जाता है कि दलित अब जागृत हो गया है।अब वे न तो शारीरिक हिंसा जागृत हो गया है अभी ना तो शाब्दिक हिंसा बर्दाश्त करने को तैयार है और उन्हें शारीरिक हिंसा को। इन कहानियों में परिवर्तन के स्पष्ट संकेत दिखाई देते हैं ।
आज के वर्तमान युग में भी कॉलेज तथा स्कूलों में जातीयवाद दिखाई देता है। एक सवर्ण अध्यापक को एक दलित अध्यापक का स्कूल में होना बर्दाश्त नहीं होता।यदि किसी दलित अध्यापक को अध्यापक के रूप में स्कूल में नियुक्त किया जाता है तो उसके विरुद्ध विभिन्न प्रकार के षड्यंत्र रखे जाते हैं। ‘मोहरे’ कहानी का दलित नायक सत्यप्रकाश भी इसी षड्यंत्र का शिकार है। क्योंकि सवर्ण अध्यापक रामदेव त्रिपाठी सत्यप्रकाश पर गलत आरोप लगाकर उसे विरुद्ध षडयंत्र रचाकर उसका तबादला एक ऐसे स्थान पर कर देता है कि जो उसके लिए असुविधाजनक है।’ कामरेड का घर’ इस कहानी में कामरेड तिवारी पात्र के द्वारा लेखक ने दोगलेपन स्पष्ट करने की कोशिश की है कि भारत में मार्क्सवाद भी हिंदू वर्चस्व को कायम रखने के लिए एक हथियार के रूप में किस प्रकार प्रयोग में लाया गया इसका चित्रण इस कहानी में किया गया है।
‘नो बार’ और ‘बिट्टन मर गई’ ऐसी दो कहानियां है जो इस संग्रह को अत्यंत महत्वपूर्ण बनती है। इन कहानियों में जातिगत विद्वेष की विशाखा का यथार्थ चित्रण है। जाति समाज का ऐसा मकडजाल है, जिससे निकल पाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है ।इसमें घर परिवार की अंतरात्मा जकड़ी हुई नजर आती है। ‘नो बार’ कहानी तो प्रगतिशील मानसिकता वाले लोगो के प्रति एक व्यंग्य भी है, जो जाति बंधन नहीं का विज्ञापन देकर अपनी बेटियों की शादी का प्रस्ताव सामने रख देते हैं, मगर जातीयता के बोध से निकल नहीं पाते ।’बिट्टन मर गई’ संग्रह की एक और भेद महत्वपूर्ण कहानी है। गलती से एक सवर्ण लड़की की शादी दलित लड़के से हो जाती है। लड़की के माता-पिता को जब अपनी गलती का पता चलता है तो वह लड़की को उसके पति के घर नहीं भेजते। वह लड़की परिवार और समाज से द्वारा दुहरे के आगे बेबस हो जाती है और अंत में एक दिन दर्दनाक मौत का शिकार हो जाती है।
जयप्रकाश कर्दम की कहानियां अपने तथ्य और शिल्प दोनों में बेजोड़ है, जो दलित जागरण और हमारे सोच को विस्तार प्रदान करती है। इन कहानियों की भाषा गांव की ग्रामीण बोलचाल की भाषा है। इनमें मुहावरों और कहावतों का सुंदर प्रयोग किया गया है। इनमें कहीं -कहीं पर अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।
इस देश के नेताओं ने जो वादे किए थे उन्हें पूरा नहीं किया जा सका। क्या थे वे वादे? इस देश में कोई ऊंचा और नीचा न रहे। सबको न्याय मिले ।समाज में किसानों और दलितों वर्ग को उनका आत्म सम्मान मिले। यह सब आजाद भारत के प्रधानमंत्री और नेताओं के वादे थे, जो संविधान सम्मत भी थे। पर वह वादे पूरे नहीं हो सके। महात्मा गांधी, पंडित नेहरू डॉ.बाबासाहेब अंबेडकर ने जिस जाति और शोषणविहीन समाज की आधारशिला रखी थी, उसे ही नेताओं ने ध्वस्त कर दिया। जाति और वर्ग वेद का नाग आज भी फन फैलाए बैठा है और अवसर पाते ही वह अपना जहर फैलाने लगता है ।यह हमें कहानीकार जयप्रकाश कर्दम की कहानी बताती है । जयप्रकाश कर्दम को इसी बात की तलाश है कि वह जाति ऊंच- नीच और शोषण रहित समाज है कहां ?इसकी तलाश लेखक कर रहे है।
दलित वर्ग सदियों से जिस वेदना और पीड़ा को भोग रहा है, उस वेदना और पीड़ा का चित्रण इस कहानी संग्रह की कहानियों में एक आक्रोश और विद्रोह के रूप में हुआ है। जयप्रकाश कर्दम ने अपनी कहानियों के माध्यम से दलित वर्ग की पीड़ा, जीवन जीने की स्वतंत्रता, समानता और अपने हक की लड़ाई को सामने रखा है ।इन कहानियों के माध्यम से लेखक ने दलित समाज को जागृत करने, सामाजिक अन्याय करने के खिलाफ लड़ाई लड़ने ,और समाज में समानता लाने का प्रयास किया है। अतः अंबेडकरवादी विचारधारा इस कहानियों में दिखाई देती है। इस विचारधारा के माध्यम से लेखक समता स्वतंत्रता बंधुता जैसे मूल्यों की अपेक्षा समाज के सवर्ण लोगों से करती है।और समतावादी व्यवस्था की मांग भी करते हैं।
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