भाषा में नहीं

By भट्ट सपना

Price:  
₹275
Share

Original Title

भाषा में नहीं

Subject & College

Series

Publish Date

2024-01-01

Published Year

2024

Publisher, Place

ISBN 13

978-81-1989-928-9

Format

Paperback

Country

India

Language

Hindi

Readers Feedback

Bhasha Mein Nahi

समकालीन कविता के चमत्कारिक शब्दों और सिंथेटिक बिंबों के इस दौर में संजीदा और आत्मीय गंधों वाली कविताओं को ढूंढना बहुत आसान नहीं है ।...Read More

Ms Mayuri Arjun Madhe

Ms Mayuri Arjun Madhe

×
Bhasha Mein Nahi
Share

समकालीन कविता के चमत्कारिक शब्दों और सिंथेटिक बिंबों के इस दौर में संजीदा और आत्मीय गंधों वाली कविताओं को ढूंढना बहुत आसान नहीं है । हज़ारों-हज़ार कवितायें रोज़ लिखीं जा रही हैं । इस क्रम में उनके कथ्य आपस में गडमड हो रहै हैं । कविताएं नित अपना रूप-रंग-भाषा-गन्ध बदल रही हैं । वे कविताओं की बजाए सूक्तियां बनती जा रही हैं। कवि अपनी पहचान को लेकर उद्विग्न व बेचैन हैं । दिक्क़त तो ऐसी भी है कि कवि से निकलकर पाठकों तक कवितायें नहीं पहुँच पा रहीं । कवि परेशान है और पाठक हलकान है ! ऐसे में, इन दिनों जिन कवियों ने अपने अलग कहन और गहन भाषा को लेकर कविता प्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है उनमें सपना भट्ट का नाम प्रमुख है । सपना जी की कविताओं में अनछुए दृश्य, टटके बिम्ब और कहन की ताज़गी है। कविताओं में लोकधुन-सा एक ताल और संगीत है । उनकी कविताओं में एक मद्धम धुन सी बजती है, कुछ अव्यक्त-सा हमेशा ध्वनित होता है । कविताओं में राग, रंग, पीड़ा, प्रेम, दुःख, संघर्ष हर भावनाएं अपने अलग और अनोखे अंदाज़ में बयान होते हैं । इसलिए आज वे समकालीन कवियों के महत्वपूर्ण नामों में एक हैं ।
अभी हाल में ही सपना भट्ट का दूसरा काव्य संग्रह “भाषा में नहीं“ सेतु प्रकाशन से शाया हुआ है, उसका स्वागत है। सपना भट्ट आश्वस्ति और उम्मीद की कवि हैं। वे कहती हैं –

“ सूर्य को पुकारते रहने से भी
जब अन्धेरा नहीं छंटता है
आत्मा के आँगन में खुलती
एक अकेली आदिम खिड़की को पुकारता हूँ I” (भाषा में नहीं)।

इन पंक्तियों में एक आर्द्र किन्तु आशा से भरी कारुणिक आवाज़ सुनी जा सकती है । एक शाश्वत सवाल हरेक कवि का पीछा करता है कि हम लिखते क्यों हैं – और वह भी कविता । इस सवाल का एक माकूल जवाब इन कविताओं में मिलता है । वे लिखती हैं ,
“ ईंधन के बाद बची राख से भी
मले और घिसे जा सकते हैं बासन I”
ये दो पंक्तियाँ ही काफ़ी हैं । उनके लेखन का निहितार्थ भी यही है !
आलोचक प्रभात मिलिंद कहते हैं, “हम बेशक उनको समकालीन हिंदी कविता की एलिजाबेथ बैरेट नहीं माने, तो भी यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हिंदी कविता के आगामी इतिहास में जब कुछ सुन्दर और मार्मिक प्रेम कविताओं का ज़िक्र होगा तो उनमें कुछ उनकी भी कवितायें दर्ज होंगी ।” सपना भट्ट निष्कलुष प्रेम व आत्मीय रिश्तों की सशक्त कवि हैं । सपना जी की प्रेम कवितायें देह से इतर आत्मिक व निर्विकार प्रेम की कथा है जिसमें कामनाओं की गंध नहीं अपितु त्याग और दुनिया को सुंदर रूपाकार देने की प्रार्थना भी है । प्रेम को परिभाषित करने का उनका अपना तरीका है ।
पंक्तियाँ देखें –
“ जबकि दुनिया में सुलग रही है
अन्याय की राजनीतिक सामजिक आग
तिस पर जब एक भीषण महामारी का
प्रकोप सह रही है यह दुनिया
मैं प्रेम कवितायें लिखती हूँ…
कितनी निर्लज्ज हूँ
मेरे अस्तित्व से समाज को क्या लाभ !”

और जब निर्विकार निष्कलुष प्रेम की बात आती हैं , तो वे बड़ी ख़ूबसूरती से कहती हैं –
“ प्यार मेरे
ऐसी कौन सी दिशा है जो तुम तक नहीं जाती ?
मेरा मुख आज
तुम्हारे चमकीले सूर्य की उजास से प्रकाशित है
मैं अनगिनत दिशाओं से तुम्हारी ओर आ रही हूँ ।

यह प्रेम में आत्मोसर्ग की कमाल की पंक्तियाँ हैं । दरअसल प्रेम परिभाषा विहीन हैं , किन्तु ऐसी ख़ूबसूरत पंक्तियाँ प्रेम को शब्दों में व्यक्त करती हैं । जो प्रेम को जीते हैं, जो प्रेम में बसते हैं और जिनमें प्रेम रचता बसता है, स्वाभाविक रूप से उनकी कविताओं में प्रकृति तो होगी ही । प्रकृति हमें प्रेम करना सिखाती है, जीने का सलीका सिखाती है । सपना भट्ट की कविताओं में पहाड़ और उनका सौंदर्य है, किन्तु पहाड़ के सीने में विकास की धंसी हुई सुरंगें भी हैं । विलुप्त होती पहाड़ी संस्कृति के दुःख से लबरेज़ हैं उनकी अभिव्यक्ति । जिनका जीवन पहाड़ पर बीता हो तो उनके दुःख भी सामान्य जीवन से कुछ भिन्न होते हैं । और वैसे जीवन की अपनी दुश्चिंताएं हैं दुश्वारियां हैं । जोशीमठ त्रासदी को ताज़ा करती हुई उनकी कविता है – अब तुम क्या देखने आओगे पहाड़ ।” कविता में कवि का दुःख छलकता है।

“ हमें इस कराहती
पृथ्वी की आह लग गयी है…
जीवन हाथों से छूट रहा है
मिट्टी, वन और पानी के वैभव छीज रहे हैं
देवता प्रतिमाओं से कूच करने को है…
हम किससे कहेंगे कि
मनोरंजन नहीं है टेलीविजन पर किसी की
छत आँगन और दीवार पर पड़ी दरार का दिखाना
कि टेलीविजन से संज्ञान में सिर्फ़ ख़बर आती है
संवेदना नहीं “ I
भोगी हुई पीड़ा , आगाह करते हुए शब्द कविता को सार्थक बनाते हैं ।
सपना भट्ट की कविताओं में स्त्री विमर्श का आना उतना ही स्वाभाविक है जितना जीवन के साथ सांसों की आवाजाही जरूरी है । उनकी कविताओं में स्त्री के दुःख वेदना और संघर्ष को केंद्र में रखते हुए पितृसत्ता का प्रतिकार किया गया है, न कि पुरुषों पर प्रहार । स्त्री विमर्श की कविताओं में अक्सर यह चूक हो जाती है । किन्तु सपना जी ने इसे बड़ी संजीदगी से सम्हाला है । “चाल चलन“ कविता की पंक्तियाँ देखीं जाएं –

“उन्हें मेरे तने कंधे
और सीधी रीढ़ के पीछे संघर्ष नहीं दीखते….
मेरा स्वावलम्बी होकर जीना
और अपने श्रम और सामर्थ्य से
कमाकर खाना नहीं दीखता …
उन्हें अन्याय का विरोध करती
और अपने हक के लिए आवाज़ उठाती
एक औरत का चाल चलन दीखता है …
वह भी ‘ख़राब” विशेषण के साथ …” .

संग्रह की कविताओं में पितृसता का विरोध ट्रेडिशनल नहीं है, बल्कि यूँ कहा जाय कि विद्रोह के ताब और तेवर कुछ अलग हैं । इसलिए उन्हें प्रतिकार की कवि मानने में कोई गुरेज़ नहीं होनी चाहिए । मिसाल के तौर पर “इंक़लाब का रंग” की पंक्तियाँ हैं,
“ मेरी कलाई में बहते रंग से नहीं कमतर
मेरे मासिक श्राव का यह रंग … मुझे इस रंग से प्यार है क्योंकि
यह पितृसत्ता की साज़िशों के ख़िलाफ़
मेरे ग़ुस्से प्रतिरोध का भी रंग है … यह रंग है मुक्ति और साहस का
यह इंक़लाब का रंग है …”
एक दूसरी कविता “एक दिन हम सब औरतें” में वे मुक्ति की बात करते हुए कहती हैं ,

“ देखना हम सब औरतें एक दिन
देवालयों में देवियों की उपाधि को ठुकराकर
युगों से पथराई प्रतिमाओं से बाहर निकल आयेंगीं …
हम देवत्व की नहीं मनुष्य की संज्ञा के लिए लडे़ंगी ”।

यह हकीकत है कि “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” कहकर हमारा समाज महिलाओं को ऊँचा आसान देने का ढोंग तो रचता है, किन्तु स्थिति दोयम दर्जे की ही बनाए रखता है । औरतों की स्थिति का एक अनोखा रूपक इस संग्रह में मिला –

“ इतनी भर उपस्थिति दिखे कि
रसोईघर में रखी माँ की दी परात में उसका नाम लिखा हो
पर घर के बाहर नेम-प्लेट पर नहीं ”I

यह दौर सम्बन्धों के संकुचन का है। आज हमारे हाथ में संवाद और रिश्तों को क़ायम करने के सारे यांत्रिक सूत्र हैं, जो सम्बन्धों की उद्दातता और वितान पर भारी पड़ रहे हैं । आत्ममुग्धता पूरे परवान पर है । सम्मान की बात तो दूर की बात है, रिश्ते रिस रहे हैं, छीज रहे हैं । यदि कविताओं को बचाना है तो सबसे पहले सम्बन्धों की आत्मीयता के ऐसे क्षरण की गति को कुंद करना रचनाकारों को प्रथम भावबोध होना अनिवार्य ही नहीं, अपरिहार्य भी है । सपना भट्ट ऐसे तमाम सम्बन्धों को बचाना चाहती हैं, उनके मन में इस परिस्थिति की वेदना है । अपनी कविताओं में वे माँ पिता को बारम्बार स्मरण करती हैं । यहाँ तक कि अपने प्रिय रचनाकारों के प्रति भी वे काफी संवेदनशील हैं । कविता “ स्वदेश दीपक के लिए “ की पंक्तियों पर गौर किया जाय तो यह दिखाई देता हैं –

“ पक्षाघात देह को होता है
मन को नहीं
कलम नहीं बचती
तो भी शब्द तो बच ही जाते हैं न अंतर्बोध में …
जैसे तुम्हारे मन की मायावी सिद्ध उक्तियाँ का
अखूट सौंदर्य बचा हुआ है मंचों और नेप्थ्यों में अब तक ।”

अपने पूर्वजों के प्रति यही सम्मान एक रचनाकार का भी अपना सम्मान भी हैं । अपने समकालीन प्रिय कवि प्रभात एवं अनिता वर्मा को भी उन्होंने शिद्दत से याद किया है, और याद करने के क्रम में एकाकार होने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । वे लिखती हैं –
“ अपनी हँसी और रुदन को लिखने से ठीक पहले
तुम हमें लिखकर भूल गयी थी अनिता वर्मा ।”
इसे हम लेखन का नया प्रयोग कह सकते हैं । इस संग्रह में कुल अड़सठ छोटी बड़ी कविताएँ हैं, जिनमें एक पारदर्शी व निष्कलुष जीवन की जिजीविषा है । संघर्ष की मुक्कमल कहानी है । कविताओं में अभिव्यक्ति की ताज़ा शैली है । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन कविताओं में सपना भट्ट को एक समर्थ और विशिष्ट कवि के रूप में व्यक्त करने के सारे तत्व मौजूद हैं । वैसे भी वे पहले से ही अपने पाठकों की चहेती रही हैं, इस संग्रह से उनकी आभा में इजाफा ही होगा । संग्रह का स्वरूप आकर्षक है, आकार हैंडी है, जो पाठकों के
लिए सुविधाजनक हैं । विश्वास है कि पाठक इसे पसंद करेंगे ही और इसे अपना ढेर सारा प्यार देंगें ।

Submit Your Review