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पुस्तक परीक्षण – प्रोफेसर डॉ . सिद्धेश्वर विठ्ठल गायकवाड,भारतीय जैन संघटनेचे कला विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय,वाघोली ता. हवेली जि. पुणे.
पुस्तक की लेखिका डॉक्टर सूर्यबाला का जन्म 25 अक्टूबर 1944 को
वाराणसी में हुआ वह कायस्थ परिवार में जन्मी है। आपने अपनी
प्रारंभिक शिक्षा आर्य महिला विद्यालय वाराणसी में पूर्ण की। विवाह के
बाद सूर्यबाला मुंबई में बसी और मुंबई को ही उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र
चुना। आपने अपना शोध कार्य डॉक्टर बच्चन सिंह के निर्देशन में पूर्ण
किया। इनको दो बेटे और एक बेटी है।एक प्रसिद्ध साहित्यकार होने के
बावजूद भी आपकी रुचि आम महिलाओं जैसी है। आपको हिंदी की कुछ
रचनाकार अधिक पसंद है जो निम्नानुसार है – सुधा अरोड़ा, मनु
भंडारी,मालती जोशी, ममता कालिया, उषा प्रियंवदा, सुभद्रा कुमारी चौहान।
आपको लेखन की रुचि बचपन से ही रही थी, अपने छठी कक्षा से ही
साहित्य लेखन की शुरुआत की थी। आसपास घटित होने वाली घटनाएं,
संपर्क में आने वाले लोग उन्हें साहित्य लेखन की प्रेरणा देते नजर आते
हैं। घर परिवार के अनुकूल वातावरण में उन्हें एक श्रेष्ठ लेखिका बनाया।
आपकी पहली कहानी जीजी अक्टूबर 1972 में सारिका में प्रकाशित
हुई।आपको प्राप्त पुरस्कारों में उल्लेखनीय है – प्रियदर्शनी पुरस्कार,
घनश्याम दास, सराफ पुरस्कार, उत्तर साहित्य श्री, राम मनोहर त्रिपाठी
साहित्य सम्मान, शिवाजी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, साहित्य गौरव सम्मान
इत्यादि।
सूर्यबाला लाल कृत उपन्यास दीक्षांत आज की शिक्षा व्यवस्था तथा शिक्षा
व्यवस्था में असामान्य बुद्धिमान व्यक्ति के जीवन की विडंबनाओं को
चित्रित करने वाला एक सामाजिक उपन्यास है। जिसमें डॉक्टर शर्मा
नामक एक अध्यापक के जीवन की करुण कहानी बताने का प्रयास
लेखिका ने किया है। अत्यंत बुद्धिमान और अपने विषय के होनहार
विद्यार्थी होने के बावजूद राजनीति के चलते उन्हें जीवन में अनेक दुखों
और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
सूर्य वाला द्वारा लिखित दीक्षांत उपन्यास 1992 में प्रकाशित रचना है।

दीक्षांत उपन्यास आज की शिक्षा पद्धति में अध्यापक को महत्व न देने
के कारण मानवीय मूल्यों के ऱ्हास का उदाहरण है।शर्मा सर के माध्यम
से एक अच्छा शिक्षक व्यवस्था में किस तरह पीस जाता है, और अंततः
उन्हें आत्महत्या करने तक की नौबत आ जाती है इसका चित्रण किया
गया है। शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक या शिक्षक को महत्वपूर्ण स्थान
मिलना चाहिए यह एक मानवीय जीवन का प्रमुख मूल्य है, जिसका दमन
प्रस्तुत उपन्यास का कलेवर है। शर्मा सर के मन में शिक्षा के प्रति बड़ा
लगाव है। विना अनुदानित पद पर काम करने से उनकी आर्थिक स्थिति
अति सामान्य है। शिक्षा के प्रति वे पूर्ण समर्पित है।
शिक्षा के क्षेत्र में विद्यमान भ्रष्टाचार मानवीय जीवन के लिए बड़ा घातक
सिद्ध हो रहा है। विद्वान अध्यापक को किनारे कर चापलूसी करने वालों
का बोलबाला है यह मूल्य शर्मा सर के माध्यम से सूर्यबालाजी बताना
चाह रही है। दीक्षांत उपन्यास में लेखिका ने शर्मा सर के माध्यम से
आज की व्यवस्था में एक निष्ठावान, बुद्धिमान, विनम्र और सच्चे
व्यक्ति की कथा को रेखांकित किया है। बचपन से अत्यंत कुशाग्र बुद्धि
के होने वाले शर्मा सर संत साहित्य में पीएच.डी. किए हुए हैं, लेकिन
हालात कुछ इस प्रकार के हुए कि उन्हें अंत: अपनी नौकरी से हाथ धोने
पड़े। उपन्यास के चक्रव्यूह भाग में शर्मा सर परीक्षा हॉल में नितिन
बरुआ को नकल करने नहीं देते, जिससे वह कुछ लिख नहीं पता। उसकी
उत्तरपुस्तिका शर्मा कर ही जांचते हैं। एक दिन बरुआ शर्मा सर को रास्ते
पर रोक कर अपने को पास करने का प्रस्ताव रखता है। काफी उड़नता से
पेश आता है। शर्मा सर अंततः उसे फेल करते हैं। लेकिन उसकी बड़ी
कीमत शर्मा सर को चुकानी पड़ती है। शर्मा सर को लग रहा था कि
बाकी अध्यापक उनके साथ देंगे, लेकिन किसी ने उनके साथ नहीं दिया।
उनको अपनी रोजी-रोटी की पड़ी थी। बरुआ को फेल करने की कीमत
शर्मा सर को काफी चुकानी पड़ी। पहले तो डिग्री क्लासेस मिलने की
उम्मीद थी वह चली गई उल्टे प्रिंसिपल राजदानी ने अगले टर्म से किसी
दूसरी जगह है नौकरी तलाश करने की सलाह दी। शर्मा सर आतंकित हो
देखते ही रह गए। प्रिंसिपल राजदानी बरूवा जैसे लड़कों को नाराज करके
कॉलेज नहीं चला सकते थे। बरुआ जैसों के रिश्तेदारों से तो चंदा इकट्ठा
करके कॉलेज चलता था। एक दिन प्रिंसिपल राजदान उन्हें उन्हें बुलाकर
इस्तीफे की मांग करते हैं। इसके पीछे संस्था के प्रमुख का हाथ है। किसी
राजनेता के भांजे को शर्मा सर की जगह देने का वचन संस्था के प्रमुख

ने उसे दिया था। इसके बदले कॉलेज की रुकी हुई ग्रांट उन्हें मिलने वाली
थी। शर्मसार यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए और अंततः उन्हें नशा
करना पड़ा। प्रिंसिपल राजदान की पत्नी दोषी राजदान अपने पति को
देखते ही पहचान गई कि जरूर कुछ हुआ है। पति को आग्रह करके
पूछने पर पता चलता है कि शर्मा सर से इस्तीफा मांगना पड़ा, जो निर्णय
मैनेजमेंट कमेटी का है लेकिन लेना पड़ा राजदान को यह बात कर की
आजकल शर्मा सर की कुछ गुंडे लड़कों के साथ मारामारी चल रही है,
जिसमें कॉलेज बदनाम हो रहा है, हालांकि शर्मा सर को केवल बदनाम
करने के लिए बरुआ जैसे लड़कों ने उनके खिलाफ यह साजिश की थी।
प्रयाण शीर्षक में शर्मा सर से इस्तीफा की मांग करने के कारण वह पूरी
तरह से टूट जाते हैं। उनके जैसे एक बुद्धिवादी, होनहार,निष्कपट व्यक्ति
को भी अंततः नशा करना पड़ता है। वह घर का रास्ता छोड़ बेगम बुर्जी
की ओर चल पड़ते हैं। बेगम बुर्जी वैसे नि मनुष्य जगह है, उसके नीचे दो
तेज प्रवाह बैठे हैं शर्मा सर के मन में जो विचार चल रहे थे नौकरी चली
जाएगी तो उनके बेटों की पढ़ाई का क्या होगा? कुंती की अवस्था कैसे
होगी? इन विचार में निमग्न नशे के कारण उनका पैर फिसल गया और
वह ऊपर से नीचे उन पड़ाव में गिर पड़े। लोगों ने बचाया किसी तरह
अस्पताल में दाखिल किया गया, जिन छात्रों ने शर्मा सर को जब वे उन्हें
पढ़ते थे तब बहुत परेशान किया था वही आज उनकी इस हालात पर
सबसे आगे शोर मचा रहे थे, और प्रिंसिपल राजधानी के विरुद्ध आवाज
बुलंद कर रहे थे। उन लड़कों ने शर्मा सर की इस अवस्था के जिम्मेदार
प्रिंसिपल राजधानी ही है यह पक्का जान लिया था।
शर्मा सर समाज के उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके पास
बुद्धि, ज्ञान तो है लेकिन किसी प्रकार का राजनीतिक तथा आर्थिक समर्थ
नहीं है, संत साहित्य का पीएच.डी. होते हुए भी विभाग अध्यक्ष द्वारा
अपमानित किया जाता है, जो विभाग अध्यक्ष तृतीय श्रेणी में पास हुआ
है।विद्याभूषण शर्मा जो तत्वों के सामने कभी नहीं झुके, हालांकि उनकी
असमय मृत्यु से उपन्यास में थोड़ा सा निराशा वादित का और दिखाई
पड़ता है, लेकिन लेखिका ने स्वयं यह बात स्वीकारी है कि शर्मा सर ने
आत्महत्या नहीं की, बल्कि रात के अंधेरे में नशे के प्रभाव के कारण
उनका पैर फिसल गया और वह बेगम बुर्जी से नीचे गिर पड़े। बात
स्पष्ट है कि सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति के सामने झुक कर ही
उनका जीवन समाप्त हुआ है, लेकिन विजेंद्र के पिताजी के द्वारा शर्मा
सर के दोनों बेटों के पढ़ने का बोझ उठाने की बात जोड़कर लेखिका ने

समाज में विद्यमान मानवतावाद, नैतिक मूल्य, आशावाद को उजागर
किया है।

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