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मध्य भारत के किसी अनाम विश्वविद्यालय के
उपकुलपति (वीसी) डॉ माथुर की कुतिया जिसे विश्वविद्यालय
के लोग अदब से जूलिया मेमसाब भी कहते हैं, चार बच्चे देती
है. वीसी, ख़ासकर उनकी पत्नी मैडम वीसी यानी छबीलादेवी
को बधाई देने या कहें उनके सामने अपनी अदृश्य दुम हिलाने
के लिए के लिए लोग जुट जाते हैं । इस काम (दुम हिलाने) में
डॉ सिंह और डॉ शुक्ला इन दोनों प्रोफ़ेसर्स के बीच ख़ास
प्रतिद्वंद्विता है । इस विश्वविद्यालय में हर चीज़ सेटिंग से होती
है, वीसी ख़ुद इस पद पर सेटिंग के चलते पहुंचे हैं । वीसी मैडम
की दुलारी जूलिया जिस किसी पर रहम करती (जिसे काटती)
है, उसे मैडम अपने पति से कहकर कहीं न कहीं सेट करा देती
हैं ।
दूसरी ओर उपन्यास में कहानी चलती है इसी
विश्वविद्यालय से संबद्ध रायबहादुर कर्णसिंह डिग्री कॉलेज की.
वहां भी शिक्षा व्यवस्था को अपने अनुभवों से समृद्ध करनेवाले
एक से बढ़कर एक नवरत्न मौजूद हैं। पूरी किताब में वे कभी
क्लास रूम में पढ़ाते हुए या शिक्षा से जुड़े किसी काम पर चर्चा
करते नहीं मिलते । नौकरी से टिके रहने के सभी के अपने-अपने
समीकरण हैंमै । नेजमेंट की जी हजूरी में लगे प्रिंसिपल, पढ़ाने
के अलावा सारे काम करते शिक्षक और गुंडई करते छात्र, मिल-
जुलकर उच्च शिक्षा का जो खाका खींचते हैं, वह एक भयावह
तस्वीर की तरह डराती है ।
इस उपन्यास में शिक्षा के ठेकों और उन्हें चलानेवाले
ठेकेदारों की पड़ताल की गई है । डिग्रियां देने-लेने के तमाशे को
दिखाया गया है । पीएचडी के लिए पापड़ बेलते छात्र हैं तो
बेलवाने वाले बेशर्म प्रोफ़ेसर्स भी शिक्षा के मंदिर में जारी जात-
पात, ऊंच-नीच के भेदभाव को भी लेखक ने हल्के-से छूने का

प्रयास किया है ।
चूंकि लेखक एक जानेमाने व्यंग्यकार हैं सो भाषा धारदार
है, लेकिन कई सारे पात्रों वाले इस उपन्यास में एक केन्द्रीय
पात्र की कमी साफ़ झलकती है । कभी कोई पात्र अहम् हो
जाता है तो कभी कोई यदि लेखक ने इसपर काम किया होता
तो उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड और अपीलिंग हो जाता ।

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